राही चलते जाना है

घर से तू जब निकल पडा,

दूर देस को चल पडा.

फिर पथ कैसा ये किसे पता?

कहाँ रात कटे क्या तुझे पता?

इस राह का यही फसाना है।

राही चलते जाना है।

आज यहाँ रुक, कुछ पल सुस्ता.

अरे देख जरा, वो बुला रहा।

क्यूँ डरता है,

किससे घबराता है?

ज़रा ठहर, उसे भी दोस्त बना।

उसका घर ही तेरा ठिकाना है,

पर राही चलते जाना है।

कई लोग मिले, कुछ दिन गुज़रे,

उन ढलती शामों में, ठहाके गूंजे।

यहीं ठहर जा, बस अब रुक,

आगे क्या मिल जाना है, पर,

इसे मंज़िल कब से माना है?

अरे राही चलते जाना है।

ये ग़लत हुआ, बडा बुरा लगा,

क्या वजह रही, तू ढुंढ रहा।

राह में मुश्किल होगी, पता था,

पर इस तरह, ये ना सोचा, बिन इसके,

पथ अधूरा रह जाना है,

यही खुदको समझाना है,

और राही चलते जाना है।

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